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अपने को उभार ले बस अब वक़्त हैं तेरा (कविता)

यह कविता उन सभी की लिए जो कही ना कही अपने ज़िन्दगी में रुक गए हैं। शायद ज़िम्मेदारियों के बोझ तले या समाज के दायरे में फसे। बस अब यही कहूंगी बढ़े चलो बढ़े चलो

कौन कहता हैं दिल को समेट लो

ख्वाइशें और भी हैं दिल में इनको भी उभरने दो

किरदार बहुत निभा लिए अब तो दिल को उड़ने दो 

न उम्र की सीमा हो न वक़्त का दायरा हो

बस दिल को उड़ना हैं -उड़ने दो ,उड़ने दो

माँ शब्द ने सिखाये तजुर्बे हज़ार

दिल जो कभी अकेला था आज व्यस्त हैं अपार।

मेरा भी कुछ यही हाल हैं

ढूंढ़ती हूँ उसको इन वादियों में

बच्चो में और किसी की खिलखिलाती बातों में

या किसी की कला या प्यार से परोसे पकवान में।

बस प्यार ही हैं जिसपर हम ज़िंदा हैं

शायद यही ज़िन्दगी का तजुर्बा हैं।

देखा हैं अपने को रंग बदलते हुए

तब लगा इंद्रधनुष का एहसास क्या हैं।

तू भी क्यू अकेले बैठा हैं ऐ दिल

क्या ढूंढ रहा हैं बाहर

सब कुछ तेरे अंदर हैं

सुंदरता भी हैं शामिल।

एक लौ जो सुलग रही हैं मध्यम- मध्यम

सुलगा दे उसको आज  “मैं “में खोकर

क्या खोया क्या पाया , हिसाब हुआ पुराना

बस चलते जा जहाँ सुकून मिले

बस तेरे दिल का हो दायरा

समय निकलता जाएगा

पर  इच्छाये भी साथ ले जाएगा।

किस बात का पछतावा या किस बात का गम

ज़िन्दगी तेरी तुझसे नहीं कम

आज भी मौके हैं हज़ार ऐ दिल

बस अपने दिल को हैं समझना

यह मौका  और यह पल

फिर ना आएगा दुबारा

उलझने , कठिनाई सब फेर हैं दिन के

जब दिल में हो जूनून तो सब हलके हैं झटके

ना किसी की परवाह ,

न गिले न शिकवा

अपने को उभार ले बस अब वक़्त हैं तेरा !

अपने को उभार ले बस अब वक़्त हैं तेरा !

अपने को उभार ले बस अब वक़्त हैं तेरा !

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2 thoughts on “अपने को उभार ले बस अब वक़्त हैं तेरा (कविता)

    1. thank you so much Bhavna for reading and dropping by! I keep reading your work, you write really well!! Keep writing and keep growing!! All the best

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