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शुक्र हैं आज शुक्रवार हैं-एक माँ की सोच

एक समय था जब शुक्रवार की कभी परवाह नहीं थी। सब दिन एक से ही लगते थे। बल्कि संडे ही कभी बोर हो जाया करता था कि क्या करें? उस समय स्कूल और ऑफिस ६ दिन के हुआ करते थे। यह ५ वर्किंग डे का चलन तो कुछ सालों पहले ही शुरू हुआ हैं।

मुझे अभी भी याद हैं कि सुबह उठना कितना बड़ा काम लगता था। हालांकि सिर्फ उठना पड़ता था और अपने काम करने होते थे और ऊपर से सब करा कराया मिलता था । उस समय लगता था हमारी माँ की ज़िन्दगी कितनी अच्छी हैं। ना उनको होमवर्क मिलता हैं , ना सुबह सुबह तैयार हो कर स्कूल जाना होता था ,ना टीचर की फटकार और ना कुछ काम करने का ज़ोर। सोचते थे हम भी जब माँ बनेगे ऐसी ही मज़े करेंगे। आराम से उठना , खाना पीना , सोना बस और क्या।

फिर समय बीता और हम कॉलेज से नौकरी की कगार पर पहुंचे। तब भी ऐश ही थे। सिर्फ सुबह उठना पड़ता था और कुछ नहीं , सारे काम करे कराये मिलते थे। अगर ऑफिस हो तो बिजी और न हो तो बाहर चले जाओ अपने दोस्तों के साथ , और हो जाओ बिजी।

कभी फर्क नहीं पड़ा क्या दिन, क्या तारीख सब बराबर।

फिर शुरू हुई शादी की ज़िंदगी। थोड़ा बहुत बदलाव ,जैसे घर का सामान की लिस्ट, घर की मैनेजमेंट संभालना वगेरा वगेरा। संभल गया। पर उसमे भी शनिवार रविवार की समय काफी होता था अपने हिसाब से बिताने का। जैसा मर्ज़ी खाया , सोया , बाहर गए।

पर दिनों की गिनती जब शुरू हुई जब बच्चे ज़िंदगी में आये ।शुरुवात में तो बच्चे ही अलार्म का काम करते हैं। और मज़ाल हैं कि कोई काम आप अपने हिसाब से अपने टाइम पर कर पाओ। खाना , नहाना , बाजार जाना सब मुश्किल। कुछ काम तो बस निबटाने होते हैं जैसे नहाना , खाना बनाना और खाना। फिर शुरू होता हैं स्कूल का समय और अगर आप दो बच्चों की माँ हैं तो आपको शुक्रवार का आना कितना सुहाना लगता होगा।

वह छोटी सी ख़ुशी का एहसास कि आज इस हफ्ते का आखिरी अलॉर्म हैं। आह !! और यह एहसास कि अब दो दिन मिलेंगे बिना अलार्म वाले। वह बात अलग हैं की बाकी दो दिन बच्चे खुद ही सुबह जल्दी सुबह उठ जाते हैं। और दिन भर ऐसी रेल बनती हैं की बस पूछो मत।

इतने सालों में अब जाकर पता चला हैं कि यह शुक्रवार का आना कितना अच्छा लगता हैं । एक अलग सुकून मिलता हैं जब सुबह अलार्म बंद करती हु यह सोच की अगले दो दिन तक मुझे इसकी जरूरत नहीं। सही माने में तो अब जा कर पता लगता हैं माँ की दिनचर्या कभी आरामदायक नहीं थीं , बस दूर से ही सब चीज़े सुहानी लगती हैं।

एक माँ का शुक्रवार अलग होता हैं , और सुकून भरा। सही में लगता हैं “शुक्र हैं शुक्रवार हैं”।

शायद दो दिन कुछ काम का बोझ कम हो जाये या बट जाए। पर सच्चाई आप सभी जानते हैं 🙂

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